कहीं पर यह कविता पढ़ी थी, बहुत अच्छी लगी. आपके पेशे-खिदमत है
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
जब टूटने लगते सपने सारे आशा का दीपक जलाती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
मेरे प्राणों का अवलंबन बन दिवा-रात्रि मेरे संग होती हो
मेरे नयन लोक के विरह तुम में ज्योति बन जलती रहती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
तुम बिन मेरा यह जीवन सूना सूने में रहता दुख दूना
लेते ही नाम तुम्हारा, प्रदीप्त हो उठता, उर का कोना-कोना
तुम नित विविध बंधन में बंधकर मेरे आंगन रहती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
तुम जो मेरे संग न चलती प्रिये! मेरी पथ-प्रदर्शिका बन
तो जरा भी संशय नहीं कि मैं टूटकर बिखर गया होता
मिट जाता होकर कण-कण तुमने खुद को किया समर्पित
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो।
बहुत उम्दा भावनाओं को कविता में पिरोने की कोशिश की है आपने
ReplyDeleteमुबारक हो
अगर आपकी नजर में कोई सोरायसिस का मरीज हो तो हमारे पास भेजिए ,हम उसका फ्री ईलाज करेंगे दो महीने हमारे पास रहना होगा
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तुम जो मेरे संग न चलती प्रिये! मेरी पथ-प्रदर्शिका बन
ReplyDeleteतो जरा भी संशय नहीं कि मैं टूटकर बिखर गया होता
मिट जाता होकर कण-कण तुमने खुद को किया समर्पित
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो।
बहुत अच्छी नज़्म .....ग़ज़ल की तर्ज़ में ....!!
अच्छा लिखते हैं आप ....!!
स्वागत है .....!!
ye word verification hta lein ....
nice
ReplyDeleteहिजाब के ऊपर मैंने एक लेख लिखा है, मेरे ब्लॉग पर ज़रूर देखिएगा.
ReplyDeleteबेहतरीन भावों से सजी खूबसूरत रचना..बधाई.
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ReplyDeleteएम एल ए साहब, इतना ही कहूँगा कि आपने दिल से लिखा है, यही कारण है आपकी रचना हमारे दिल तक पहुँची है। बधाई।
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अद्भुत रहस्य: स्टोनहेंज।
चेल्सी की शादी में गिरिजेश भाई के न पहुँच पाने का दु:ख..।