Saturday, August 7, 2010

ब्लॉग जगत - आखिर यह दोगलापन क्यों?

वैसे तो मैं ब्लॉग जगत से दूर ही रहता हूँ, कभी कभार दोस्त ईमेल करदेते हैं तो पोस्ट पढ़ लेता हूँ. एक दिन चिटठा जगत पर नज़र दौड़ाई तो शरीफ साहब के लेख पर नज़र पढ़ गई, वहां तो घमासान मचा हुआ था. लेकिन लोगो के कमेंट्स देखकर मुझे पड़ा आश्चर्य हुआ, लोग उनके पीछे हाथ धो-कर पड़े हुए थे. कुछ लोग मुसलमानों और इस्लाम धर्म के खिलाफ उलटा-सीधा लिखते रहते हैं, बल्कि इसके सिवा कुछ और लिखते ही नहीं हैं. फिर भी उन्हें कभी किसी ने कुछ नहीं कहा, ना तो कभी कानून की धमकी दी गई और ना मारने-पीटने की बात हुई, बल्कि अमित शर्मा जैसे कुछ लोग वहां बेसिर-पैर की बातों पर खुश हो रहे होते हैं. लेकिन जब अयाज़ और असलम कासमी ने श्री राम के जन्म के अनुमानित समय के बारे में पूछा (जो कि तक़रीबन 10-11 लाख साल पहले का है) तो बवाल मच गया. कुछ लोग तो वहां बाकायदा लड़ाई के लिए पहुँच गए और भूल गए की जब मुसलमानों के खिलाफ लिखा जाता है तो उन्हें कुछ फरक नहीं पड़ता है. आखिर यह दोगलापन क्यों?

देशनामा पर सुरेश चिपलूनकर साहब तो पुरे भारत वासियों को ही 'हराम की औलाद' कह चुके हैं. और वहां भी एक मुसलमान 'साजिद अली' को छोड़ कर किसी ने उनके खिलाफ कुछ नहीं बोला, क्यों? क्या विरोध केवल मुसलमानों का ही होना चाहिए?
http://deshnama.blogspot.com/2010/06/blog-post_29.html

सुरेश चिपलूनकर तो वेद-कुरान-पुराण को अप्रासंगिक और बकवास तक कह डालते हैं और किसी के मुंह से आह भी नहीं निकलती.
http://vedquran.blogspot.com/2010/04/save-yourself.html

मिश्रा जी सलीम और अनवर जमाल जी से लड़ रहे थे, और कह रहे थे कि तुमने राम के खिलाफ कुछ बोला तो हथियार उठ जाएँगे (हालाँकि उन्होंने कुछ भी नहीं बोला था). जबकि परम आर्य के ब्लॉग पर उनका वक्तव्य मैंने खुद पढ़ा है जिसमें वह कहते हैं कि पुराण तो गधो के लिए हैं.
http://vedictoap.blogspot.com/2010/07/blog-post_27.html

उनकी मंशा कितनी भी अच्छी हो, लेकिन क्या हिन्दू धर्म के बारे में ऐसा लिखने वाला दूसरों पर ऊँगली उठाने का हक़दार है? जब प्रवीण शाह हिन्दू धर्म के बारे में उल्टा सीधा लिखते हैं तो किसी को भी बुरा नहीं लगता और जब असलम कासमी सही बात भी लिखते हैं तो लड़ियाँ शुरू. आखिर यह दोगलापन क्यों?

मिश्रा जी तो लखनऊ ब्लॉग ही छोड़ने का फैसला कर बैठे, और ठीकरा फोड़ना चाह रहे थे सलीम पर, कह रहे थे कि वहां गलत लिखा जा रहा है. जबकि वह ब्लॉग इसलिए नहीं छोड़ रहे कि यहाँ गलत लिखा जा रहा है, बल्कि इसलिए छोड़ रहे हैं, कि किसी ने आप लोगो के खिलाफ लिखने की हिम्मत दिखाई है, और किसी मुसलमान की इतनी हिम्मत कैसे हो गई?

ज़रा देखिये गुरु गोदियाल साहब ने क्या लिख रहें है अपनी पोस्ट में.... मिश्रा जी भी वहां हैं.

ये ईशू के भक्त, अल्लाह के वन्दों से कुछ कम अमानवीय नहीं !
http://gurugodiyal.blogspot.com/2010/08/blog-post_06.html


गोदियाल साहब अपने पुरखों के कुकृत्य भूल गए और अमेरिका की कहानी सुनाते-सुनाते तालिबानी आतंकवादियों की आड़ में इस्लाम धर्म को ही आतंकवादियों की श्रेणी में खड़ा कर दिया. अब ना तो तथाकथित नास्तिक मिश्रा जी कुछ कहेंगे और ना ही अन्य नास्तिक और आस्तिक भाई-बंधू. क्यों यह जो लिख रहा है यह उनकी ही बिरादरी का है. इसी दोगलेपन की निति की वजह से आज ब्लॉगजगत में इतना हंगामा मचा हुआ है. लेकिन हमेशा की तरह आपकी नज़र में तो बुरे हम ही होंगे, मुसलमान जो ठहरे.

और दूसरी तरफ प्रकाश गोविन्द ने ईश्वर / अल्लाह को जो गाली दी है वह भी मिश्रा जी समेत किसी को नज़र नहीं आई...

देखिया प्रवीण शाह ने कैसे चटकारे लगाकर पोस्ट बनाई है.

सबको सन्मति दे भगवान !
http://praveenshah.blogspot.com/2010/08/blog-post_06.html

वैसे अब यहाँ भी कोई प्रकाश गोविन्द महाशय को कानून की धमकी नहीं देगा? क्योंकि ईश्वर / अल्लाह के खिलाफ जो खुलेआम थप्पड़ मारने जैसी घटिया बात लिख रहा है वह तुम्हारे स्वयं के समुदाय का है. हालाँकि एक ही कम्प्लेंट में अन्दर होने तथा पुरे भारत के लोगो के द्वारा जूते खाने जैसा वक्तव्य यह महाशय दे रहे हैं.

शांति, प्रेम और भाई चारा कभी भी दोगली निति से नहीं आ सकता है. या तो सभी ब्लोगर बंधू फैसला करें कि किसी को भी कुछ भी उल्टा-सीधा नहीं लिखने देंगे. चाहे वह हिन्दू धर्म के खिलाफ हो या इस्लाम धर्म, या फिर कोई भी धर्म. या फिर दूसरों को गलियाँ या गलियों का समर्थन करने वालों को दूसरों को भी कुछ भी कहने का हक नहीं होना चाहिए. अगर आप मेरी बात का समर्थन या विरोध करते हैं तो अपनी राय ज़रूर दें.

Sunday, March 21, 2010

चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो

कहीं पर यह कविता पढ़ी थी, बहुत अच्छी लगी. आपके पेशे-खिदमत है


चलता
हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
जब टूटने लगते सपने सारे आशा का दीपक जलाती हो


चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो
मेरे प्राणों का अवलंबन बन दिवा-रात्रि मेरे संग होती हो


मेरे नयन लोक के विरह तुम में ज्योति बन जलती रहती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो


तुम बिन मेरा यह जीवन सूना सूने में रहता दुख दूना
लेते ही नाम तुम्हारा, प्रदीप्त हो उठता, उर का कोना-कोना


तुम नित विविध बंधन में बंधकर मेरे आंगन रहती हो
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो


तुम जो मेरे संग न चलती प्रिये! मेरी पथ-प्रदर्शिका बन
तो जरा भी संशय नहीं कि मैं टूटकर बिखर गया होता


मिट जाता होकर कण-कण तुमने खुद को किया समर्पित
चलता हूं मैं कहां अकेला तुम जो मेरे संग चलती हो।